दुनिया के पहले पाकशास्त्री राजा नल के अनुसार रसोइये या खानसामे के गुण क्या होना चाहिए? amrutam ग्वालियर भाग दो
राजा नल पाकदर्पणम्, भारत का पहला पाकशास्त्री, शिकंजी का इतिहास, प्राचीन भारतीय खानपान, नल और दमयंती!
मित भाषी सदा दाता दयालुश्च सुभाषितः । धातुज्ञो देशकालज्ञो वयोऽवस्थादिविद बुधः२५।।
अर्थात् - रसोइये को मितभाषी, दानी, शांत स्वभाव का तथा वस्तुओं के धातुकर्म (गुणों) का जानकार होना चाहिए। रसोइये को खाने वाले की उम्र, क्षेत्र और मौसम एवं स्वास्थ्य आवश्यकताओं का ज्ञान होना चाहिए। इस प्रकार रसोइये को कई गुणों से युक्त होना चाहिए तभी रसोई (भोजन) में ब्रह्म बसेंगे।
अन्न के बारे में भी वर्णन है -
सर्वेषां प्राणिनां प्राणमन्नं प्रथममुच्चते। ब्रह्मरूपमिदं सम्यक त्रिषटिरसरूपकम्
- अर्थ – अन्न ही समस्त जीवधारियों का प्राण होता है। तिरसठ रस युक्त यह अन्न ही ब्रह्मस्वरूप है। अतएव अष्ट दोषों से रहित श्रेष्ठ अन्न ही ग्रहणीय कहा गया है।
- पाकदर्पण में दिनचर्या, रात्रिचर्या, श्रुतुचर्या आदि समस्त वांछित विषयों की विस्तृत विवेचना की गई है।
- सम्पूर्ण ग्रन्थ को ग्यारह भागों में विभक्त किया गया है। इसका 'पाकनिरूपण' नामक पहला (अध्याय) प्रकरण अत्यधिक विस्तृत है, जिसमें सभी व्यंजनों के भेद तथा उनके निर्माण की विधि वर्णित है। द्वितीय प्रकरण में श्रुतुवर्णन, तृतीय में भक्ष्य, भोज्यादि पदार्थों का वर्णन, चतुर्थ में पायस के विभिन्न भेद, पंचम में पेय पदार्थों का कथन, षष्ठ में यूष निर्माण के प्रकार, सप्तम में घृतान्न, अष्टम में लेहय पदार्थों के निर्माण एवं उनकी उपयोगिता, नवम् में ग्रीष्म ऋतु में जल का शीतलीकरण, दसम में प्रत्येक प्रकार के पायस, दही, मठा, खीर आदि बनाने की विधि तथा अन्तिम एकादश प्रकरण में मृतिका के पुरवों (कुल्हड़ों) में दूध भरकर उन्हें अनेक रूपों में परिवर्तित करने के उपाय बताये हैं।
- प्रथम अध्याय में सर्वप्रथम श्लोक क्र. 37 से 62 तक चावल के भात बनाने की विधि है, जो आयुवर्द्धक एवं आरोग्यकारक होता है। श्लोक क्र. 63 से 108 तक विभिन्न प्रकार के मांसाहारी व्यंजनों की विधि बताई है। इसमें रोचक
- 1. अन्नों में अमृत, पिच्छल, अशुचि, शुष्कान्न, दग्धान्न, विरूपान्न तथा क्वथितान्न ये आठ प्रकार के दूषित अन्न होते हैं।
- तथ्य यह है कि एक खास तरह की बिरयानी (मम्सोदना) के बनाने की विधि भी इसी में वर्णित है। श्लोक क्र. 121 से श्लोक क्र. 141 तक विभिन्न सूप (दालों) के निर्माण की विधि वर्णित है, जिसमें मूंग, अरहर की दालों के बनाने का विस्तार से वर्णन किया है। विशेष बात यह है कि उक्त विधि में वर्तमान मसालों (हींग, हल्दी, सेंधा, नमक) के साथ-साथ सुंगन्धित पुष्प एवं कर्पूर डालने का भी उल्लेख किया है। इसकी प्रशंसा में नल ने लिखा है-
अयं स्वादुतरः रूपं सर्वेषां हितकृद्दली।
स्निग्धो मनोहरो रूपः सधः पित्त विमर्दकः।।
- अर्थ- इस प्रकार की दाल अत्यन्त स्वादकारी, हितकारी, बलकारी, मनोहर रूपकारी एवं पित्तशामक होती है।
अयं स्वादुतरः सूप प्रोक्तोलोकहितप्रदः ।
बृष्यः सुधासमः सधः सुराणामपि दुर्लभः।।
- अर्थात् - यह स्वादिष्ट दाल प्राणियों के लिए हितकर है। यह अमृत तुल्य दाल देवदुर्लभ है तथा तत्काल ही वीर्य का वर्द्धन करती है। 12 श्लोक क्र. 142 से लेकर श्लोक क्रमांक- 164 तक मट्ठा (तक्र) के विविध व्यंजनों के निर्माण की विधि वर्णित है, जो वात-कफ शमन करने वाला ऊष्ण वीर्य होता है, तथा तत्काल ही जठराग्नि को प्रबल करता है। श्लोक क्र. 165 से लेकर 170 तक कुलथी; के रस निर्माण की विधि है, जो सौम्य गुण युक्त है तथा धातुओं से प्रादुर्भूत रोगों का शमन करता है।
- श्लोक क्र. 171 से 176 तक गोदुग्ध से निर्मित मक्खन; श्लोक क्र. 177-178 में भैंस दूध से निर्मित मक्खन का वर्णन है, श्लोक क्र. 181 से 189 तक गोघृत निर्माण विधि वर्णित है।
- श्लोक क्रमांक- 190 से 199 तक कुलथी दाना शाक के निर्माण विधि बताई है, जो रोग नाशक होता है। श्लोक क्र. 200 से 210 तक कदली (केले) के फल की सब्जी बनाने की विधि; श्लोक क्र. 211 से 218 तक केले के पेड़ के गुदा के साग निर्माण विधि वर्णित है। श्लोक क्र. 219 से 237 तक विभिन्न प्रकार के बैंगन के शाक निर्माण की विधि बताई है। श्लोक क्र. 238 से 254 तक कटहल की सब्जी, क्र. 255 से 261 तक निष्पाव (भटवांस) के फलों की सब्जी के निर्माण की विधि का वर्णन है।
राजा नल का पाकदर्पणम् – भारत का सर्वप्रथम पाकशास्त्र ग्रंथ
भारतीय संस्कृति केवल धर्म, दर्शन और युद्धनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि खानपान और पाकशास्त्र की परंपरा भी यहाँ अत्यंत प्राचीन और व्यवस्थित रही है।
महाभारत के वीर और पाकशास्त्री राजा नल को इस दिशा में प्रथम रचनाकार माना जाता है। उनका ग्रंथ “पाकदर्पणम्” भारतीय पाककला का सबसे प्राचीन लिखित प्रमाण है।
1. शाक-पाक विधियाँ (श्लोक 262–499)
इस ग्रंथ में शाक (सब्जी, पत्ते, फल और भाजी) बनाने की सैकड़ों विधियाँ दी गई हैं।
- अलग-अलग शाक की किस्मों को स्वाद और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से तैयार करने की विधियाँ।
- यह खंड दर्शाता है कि प्राचीन भारत में शाकाहारी भोजन को कितना महत्व दिया जाता था।
2. ऋतुधर्म (42 श्लोक)
दूसरे अध्याय में ऋतु और आहार का संबंध बताया गया है।
- किस ऋतु में कौन सा आहार सेवन योग्य है, इसका वर्णन।
- आज जिसे हम सीजनल डाइट (Seasonal Diet) कहते हैं, उसका आधार राजा नल ने हजारों वर्ष पहले ही दे दिया था।
3. भक्ष्यराज (मोदक निर्माण)
तीसरे अध्याय में मोदक की विधि बताई गई है।
- यह व्यंजन रुचिवर्धक, बल-वीर्यवर्धक और त्रिदोषनाशक बताया गया है।
- आज भी मोदक को भारतभर में प्रसाद और आरोग्यवर्धक व्यंजन के रूप में माना जाता है।
4. खीर और “फल-पुष्प पानक”
चतुर्थ अध्याय में लहसुन, गेहूँ आदि की खीर (पायस) बनाने का वर्णन है।
- इसमें सबसे रोचक है फल-पुष्प पानक – यह व्यंजन कठिन श्रम से बनता है लेकिन इसके गुण अद्वितीय बताए गए हैं।
श्लोक में कहा गया है:
“अयं पित्तहरो वृष्यः पथ्यः शैत्यकरो नृणाम्।
जगतामाश्रयं ब्रह्म यथा भवति सर्वदा।।32।।
अर्थात – यह पानक पित्त नाशक, वीर्यवर्धक और शीतलता प्रदान करने वाला है। जैसे ब्रह्म विश्व का आधार है, वैसे ही यह व्यंजन मानवों का आश्रय है।
5. पानक भेद और शिकंजी की उत्पत्ति
पंचम अध्याय में विभिन्न प्रकार के पानक (शीतल पेय पदार्थ) बनाने की विधि है।
- फलों के रस, फूलों के अर्क, शक्कर और सुगंधित द्रव्यों से बने पेय पदार्थ।
- इसी अध्याय में शिकंजी की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।
👉 प्राचीन काल में “शिंकजा” नामक लकड़ी का उपकरण नींबू निचोड़ने के लिए प्रयोग होता था। इसी से नींबू के शरबत का नाम शिकंजी पड़ा।
👉 नल की विधि में नींबू के रस और शक्कर को धूप में रखकर धीरे-धीरे संतृप्त घोल तैयार किया जाता था, जिसे पानी मिलाकर पिया जाता था।
👉 इसलिए प्राचीन ग्रंथों में शिकंजी को “नल-पाक” कहा गया है।
6. शालिधान्य और यूष (यूषामृत)
षष्ठ अध्याय में शालिधान्य से यूष (दल का सूप/रस) बनाने की विधि है।
- इसे यूषामृत कहा गया है, क्योंकि यह शरीर को पोषण और शक्ति देता है।
7. घृतान्नपाक
सप्तम अध्याय में घृतान्नपाक (घी और अन्न से बने व्यंजन) का वर्णन है।
- इन व्यंजनों के गुण, पचने की क्षमता और स्वास्थ्य लाभ का विवरण।
निष्कर्ष
राजा नल केवल एक वीर और धर्मप्रिय शासक नहीं थे, बल्कि वे भारत के पहले ज्ञात पाकशास्त्री भी थे।
उनका ग्रंथ पाकदर्पणम् यह सिद्ध करता है कि प्राचीन भारतीय समाज में स्वाद, स्वास्थ्य और ऋतु-आहार का अद्भुत संतुलन पहले से ही स्थापित था।
- राजा नल का पाकदर्पणम् – भारत का सर्वप्रथम पाकशास्त्र (भाग 2)
राजा नल केवल महाभारत के महान योद्धा और दमयंती के जीवनसाथी ही नहीं, बल्कि भारत के प्रथम पाकशास्त्री भी माने जाते हैं।
- उनका ग्रंथ “पाकदर्पणम्” भारतीय पाककला का सबसे प्राचीन और व्यवस्थित ग्रंथ है। इसमें भोजन निर्माण की विधियाँ, उनके औषधीय गुण और आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से आहार का महत्व विस्तृत रूप से वर्णित है।
8वाँ अध्याय – शालयन्न (चावल व्यंजन)
इस अध्याय में विभिन्न प्रकार के शालयन्न (चावल से बने व्यंजन) बनाने की विधि है:
- इमली रसपूरित शालयन्न
- कायफल शालयन्न
- कल्क शालयन्न
- सरसों के कवक सहित शालयन्न
- दधि मिश्रित शालयन्न ये व्यंजन केवल स्वाद ही नहीं, बल्कि ऋतु और प्रकृति के अनुसार स्वास्थ्यवर्धक भी बताए गए हैं।
9वाँ अध्याय – शीतल जल और जल शोधन
इस प्रकरण में जल शोधन और शीतलीकरण की विधि है।
- ऊसर क्षेत्र (बंजर भूमि) के जल को स्वादिष्ट और मीठा बनाने की विधि।
- गर्मी के मौसम में जल को शीतल करने के प्राकृतिक उपाय।
👉 यह बताता है कि प्राचीन भारत में भी पेयजल को शुद्ध और स्वास्थ्यप्रद बनाने की तकनीक विकसित थी।
10वाँ अध्याय – क्षीरपाक निर्माण
दसवें अध्याय में क्षीरपाक (दूध आधारित व्यंजन) बनाने का वर्णन है।
इसकी प्रशंसा श्लोक में की गई है:
वात-पित्त-कफ जानिंद पयो यस्य कुक्षिगतं ममयान् ।
हन्ति सर्वसुर दुर्लभं प्राथितं सुरगणैः बृषमुख्यः।।
अर्थात् – यह क्षीरपाक त्रिदोषनाशक है।
यह समस्त रोगों का विनाश करता है और देवताओं द्वारा भी प्रशंसित है।
11वाँ अध्याय – सुगन्धित दही
यह छोटा अध्याय (9 श्लोक) है, जिसमें सुगंधित दही बनाने की विधि बताई गई है।
- इसमें केवल स्वाद ही नहीं, बल्कि दही के औषधीय गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है।
विष और अविष का ज्ञान
इस पुस्तक की एक विशेषता यह है कि इसमें बताया गया है –
- किन चीजों को मिलाकर पकाने से वे विषाक्त हो जाती हैं। उन्हीं पदार्थों को अलग-अलग पकाने पर वे अविषाक्त हो जाती हैं।
👉 यहाँ तक कि धतूरा और आँकड़े जैसी विषैली वनस्पतियों से बने व्यंजनों का भी उल्लेख है।
यह दर्शाता है कि राजा नल केवल पाकशास्त्री ही नहीं, बल्कि आयुर्वेद और रसायनशास्त्र के गहरे ज्ञाता भी थे।
छप्पन भोग का अभाव
पाकदर्पणम् में छप्पन भोग जैसे प्रसिद्ध व्यंजनों का वर्णन नहीं मिलता। संभावना है कि ऐसे व्यंजन प्राचीन परिवारों में प्रचलित थे और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक परंपरा से चलते रहे, इसलिए नल ने उन्हें अलग से लिखित रूप में शामिल नहीं किया।
निष्कर्ष
राजा नल का पाकदर्पणम् हमें यह सिखाता है कि भोजन केवल स्वाद और पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि यह औषधि और जीवनशक्ति है।
इस ग्रंथ से हमें प्राचीन भारतीय समाज की वैज्ञानिक सोच, आहार संस्कृति और ऋतु-आहार का अद्भुत ज्ञान प्राप्त होता है।
राजा नल पाकदर्पणम्, भारतीय पाकशास्त्र, क्षीरपाक के लाभ, आयुर्वेदिक भोजन!
नरवर शिवपुरी के राजा नल द्वारा रचित पाकदर्पणम् – भारतीय पाकशास्त्र का प्राचीनतम ग्रंथ
प्राचीनता और लेखक का प्रमाण
- पाकदर्पणम् लगभग 2000 वर्ष पूर्व लिखी गई रचना मानी जाती है।
- यह ग्रंथ नैषध नरेश राजा नल की ही रचना है।
- ग्रंथ में अनेक स्थानों पर अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण और नल (बाहुक) के नाम आते हैं।
- प्रथम अध्याय के प्रारंभिक श्लोक (1, 2, 3) में ही नल का छद्मनाम बाहुक और निषध देश का परित्याग उल्लेखित है।
- श्लोक 10, 12, 13, 14, 15, 20 आदि में निषध, ऋतुपर्ण, दमयंती स्वयंवर और देवताओं के वरदान का वर्णन मिलता है।
- 👉 यह सब इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह ग्रंथ स्वयं राजा नल द्वारा ही लिखा गया है।
पारिवारिक ज्ञान और तीज-त्योहारों का महत्व
प्राचीन भारत में व्यंजनों की निर्माण विधि आनुवांशिक (पारिवारिक परंपरा) थी।
- तीज-त्योहारों, पर्व-उत्सवों और मांगलिक अवसरों पर इनका नियमित निर्माण होता रहता था।
- इसलिए महिलाओं को अलग से इन व्यंजनों की शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
- 👉 यही कारण है कि पाकदर्पणम् जैसी पुस्तक अपने समय में विलक्षण और अद्वितीय मानी गई।
भारतीय इतिहास में अद्वितीय योगदान
भारतीय साहित्य, दर्शन, योग, वेदांत, विज्ञान और ज्ञान पर हजारों वर्षों से ग्रंथ लिखे गए।
किन्तु समाज के सबसे महत्वपूर्ण पक्ष – भोजन और पाककला पर यह एकमात्र व्यवस्थित रचना है।
- विदेशी यात्रियों ने प्राचीन भारत को “पेटू समाज” कहकर वर्णित किया है।
- आज भी भारतीय समाज भोजन और दावतों के प्रति विशेष आकर्षित होता है।
- परंतु आश्चर्यजनक रूप से प्राचीन साहित्य में कहीं भी व्यंजनों की विधियाँ व्यवस्थित रूप में नहीं मिलतीं।
- 👉 केवल राजा नल का पाकदर्पणम् ही ऐसा प्रामाणिक ग्रंथ है, जो हमें उस युग की पाक परंपराओं का लिखित स्वरूप देता है।
भाषा और शैली
- मराठी अनुवाद की प्रस्तावना में प्रतिभा रानाडे लिखती हैं कि
- पाकदर्पणम् की भाषा संस्कृत के महान कवि कालिदास और भवभूति की तरह क्लिष्ट और उत्कृष्ट है।
- इसका साहित्यिक स्तर बहुत ऊँचा है और संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
प्राचीनता का प्रमाण – खाद्य सामग्री का अभाव
ग्रंथ की प्राचीनता का प्रमाण इस तथ्य से भी मिलता है कि इसमें उन वस्तुओं का उल्लेख नहीं है,
जो भारत में बहुत बाद में आईं, जैसे –
- पुदीना
- लाल मिर्च
- आलू
- पपीता
- ईसबगोल
- समुद्री नमक
👉 यह दर्शाता है कि पाकदर्पणम् की रचना उस काल में हुई थी, जब ये वस्तुएँ भारतीय आहार संस्कृति में प्रचलित ही नहीं थीं।
निष्कर्ष
राजा नल का पाकदर्पणम् न केवल पाककला का ग्रंथ है, बल्कि यह भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत करता है।
यह दर्शाता है कि भोजन भारतीय जीवन में औषधि, विज्ञान और आनंद – तीनों का संगम है।
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