रावण… शिव का प्रथम वैज्ञानिक भक्त। जिसने रचा शिव तांडव स्तोत्र! साधा दश दिशाओं का ज्ञान! जाने रावण रहस्य विशेषांक पढ़कर! ४० साल का सतत प्रयास
- विपरीत परिस्थितियों में भी ब्रह्मज्ञान की तलाश के तारतम्य में रावण ने महादेव से ब्रह्मास्त्र नहीं, बल्कि कुंडलिनी जागरण का ज्ञान माँगा।

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- श्री दशानन जैन धर्म के अगले भव में प्रथम तीर्थंकर भगवान के रूप में जन्म लेकर अथाह धनशाली, ज्ञानी बना देंगे! आज भी जैन धर्म में सर्वाधिक त्यागी लोग पाये जाते हैं
- रावण ने नाभि से ऊर्जा प्रवाह को साधकर अमरत्व का अर्थ समझा! शरीर नहीं, चेतना की अमरता। मंत्र महोदधि और दुर्लभ रावणीय तंत्र के अनुसार
नाभेर्मध्ये स्थितं तेजो ब्रह्मरूपं सनातनम्।
तद्विज्ञाय जीवो मुक्तो न मृत्योर्न च जन्मना॥
- जो व्यक्ति अपनी नाभि में स्थित दिव्य ऊर्जा को जान लेता है, वह जन्म और मृत्यु से परे हो जाता है।
रावण रक्षेन्द्र, ब्रह्मज्ञानी और कर्मयोगी था
- लोगों ने रावण को राक्षस कहा — परंतु क्या कभी सोचा कि वह ब्रह्मा का परम भक्त, शिव का अनन्य उपासक और ब्रह्मांड के प्रथम आयुर्वेदाचार्य थे? रावण केवल लंकाधिपति नहीं, बल्कि रक्षेन्द्र अर्थात् राक्षसों में भी धर्म के रक्षक थे।

रावण का संघर्ष
- आर्य-अनार्य नहीं, न्याय-अन्याय का था रावण ने कभी जाति के नाम पर युद्ध नहीं किया। वह आर्यों से इसलिए लड़ा क्योंकि उन्होंने अनार्यों को दास कहा। रावण की घोषणा थी! मैं आर्य और अनार्य के बीच नहीं, न्याय और अन्याय के बीच खड़ा हूं।रावण का संघर्ष सत्ता नहीं, समानता के लिए था।
न देवानां न च दैत्यानां, पक्षोऽहं नृपसत्तम।
धर्मे स्थितोऽस्मि नित्यं, तत्र मे युद्धनिश्चयः॥
- मैं न देवों का पक्षधर हूं, न दैत्यों का; मैं केवल हिंदू हूँ और वैदिक धर्म धर्म के पक्ष में हूं।
रावण की माँ केकसी का वरदान
- रावण की माता केकसी ने कहा था! दशानन! दश दिशाओं में तेरे नाम का डंका बजे, ब्रह्मधाम में जाकर ब्रह्म से विद्या ग्रहण कर, क्योंकि ज्ञान ही वह अस्त्र है जो काल को भी जीत लेता है। माँ से सीख लेकर, प्रेरित हो, रावण ने ज्ञान, तप, और विज्ञान — तीनों को जीवन का आधार बनाया।
रक्षेन्द्र रावण: शिव का प्रथम वैज्ञानिक भक्त
रावणः प्रथमं स्तोत्रं शम्भोः रचयिता स्मृतः।
- शिवतांडव स्तोत्र के रचयिता रावण थे। जिसने शिवतांडव स्तोत्र जैसा दिव्य स्तोत्र रचा, वह अज्ञान का प्रतीक नहीं हो सकता।रावण ने ब्रह्मा से कुंडलिनी जागरण, दश धनुष चलाने की विद्या, और अमरत्व तंत्र सीखा। यही कारण है कि उसे दशकंधर! दस दिशाओं में ज्ञानी कहा गया।
आ बेल मोहे मार
- श्री दशानन ने ही अपने नक्षत्र-ग्रह-ज्योतिष ज्ञान से सबसे शक्तिशाली तिथि का निर्धारण किया! जिसे विजय दशमी कहते हैं!
- दसराह ग़लत नाम दशहरा को इस दिन दस दिशाओं में दस दीपदान करने से गुरु और पितरों की कृपा बरसती है और कालसर्प-पितृदोष मिट जाता है! लेकिन अज्ञानियों ने इस दिन रावण का ही दहन कर दिया और गरीबी, रोग, परेशानियों से जूझ रहे हैं
कुम्भकर्ण और विभीषण का संवाद – जीवन दर्शन
- जहाँ कुम्भकर्ण आलस्य का प्रतीक बना, वहीं विभीषण ने निवृत्ति मार्ग चुना। विभीषण कर्म पर कम और धर्म पर ज़्यादा भरोसा करते थे! डरपोक, मूर्ख लोग ही अंधे होकर धर्म की राह पकड़ लेते हैं!
- विभीषण इतने तपस्वी ही थे, तो उनकी पूजा भी होना चाहिए! दुनिया में एक मंदिर या मूर्ति भी नहीं मिलेगी! क्योंकि बुजुर्ग विद्वानों का मत है-
दगा किसी का सगा नहीं है, नहीं किया, तो करके देख!
जाग में जिसने दगा किया है, जाकर उनके घर को देख!
- परंतु रावण ने “प्रवृत्ति और निवृत्ति” दोनों को एक किया — यही योग का सार है।सीता के पिता राजा जनक आदि राजाओं ने भी कर्म द्वारा ही सिद्धि पाई। रावण ने भी कर्म द्वारा ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया, न कि पलायन से।
कर्मणैव हि संसिद्धिम् आस्थिता जनकादयः। (गीता ३.२०)
रावण का कालसर्प, विपरीत योग, नीच ग्रहों जैसा रहस्य
- जैसे जन्मकुंडली में नीच ग्रह विपरीत राजयोग बनाते हैं, वैसे ही रावण समाज की दृष्टि में नीच कहे गए पर वास्तव में वही विपरीत राजयोगी थे! जिन्होंने प्रतिकूलता में शक्ति और अपमान में अमरता पाई।
- नीचोऽपि गुणवान् पूज्यः, उच्चोऽपि गुणहीनकः। (नीति शास्त्र)अर्थात-जो गुणवान है, वह ऊँचाई पा लेता है, चाहे जन्म कहीं भी हो।
रावण – रक्षेन्द्र, ब्रह्मज्ञानी और कर्मयोग का परम उदाहरण
- लोगों ने रावण को राक्षस कहा — परंतु क्या कभी सोचा कि वह ब्रह्मा का परम भक्त, शिव का अनन्य उपासक और ब्रह्मांड के प्रथम आयुर्वेदाचार्य थे? रावण केवल लंकाधिपति नहीं, बल्कि रक्षेन्द्र अर्थात् राक्षसों में भी धर्म के रक्षक थे।
रावण का शाप और धन, सिद्धि की तंगी
यो रावणं निन्दति, तस्य वित्तं न तिष्ठति।— शिवसहिंता
- जो रावण की निंदा करता है, उसके घर में धन स्थिर नहीं रहता।क्योंकि रावण कुबेर का अनुज था! धन का रक्षक। जो उसके अस्तित्व को नकारता है, वह समृद्धि की ऊर्जा को ठुकराता है।
रावण महान क्यों था?
- ब्रह्मा और शिव – दोनों के वरदानों से युक्त।
- आयुर्वेद, संगीत, तंत्र, वास्तु, ज्योतिष का ज्ञाता।
- लंकापुरी जैसी स्वर्ण-नगरी का निर्माता।
- शिवतांडव स्तोत्र का रचयिता और भक्तों में अग्रणी।
संस्कृत श्लोक – रावण की महानता पर
नास्माद् अधिको लंकेशः, ज्ञानविज्ञानतत्त्ववित्।
रावणो ब्रह्मरूपेण, तिष्ठत्येव मनोमये॥ काली सहिंता
- रावण जैसा ज्ञानी ब्रह्मांड में दुर्लभ है; वह ज्ञान और विज्ञान दोनों में ब्रह्मस्वरूप है।
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रावण रक्षेन्द्र, ज्ञान और करुणा का सम्राट
जिसने ब्रह्म को जीत लिया, वही असली विजेता है!
- रावण दानव नहीं था! वह रक्षेन्द्र, ब्रह्मवेत्ता और शिवभक्त था। जो लोग केवल उसकी हार देखते हैं, वे उसकी महानता की परतें नहीं समझ पाते।
रावण – तप, विद्या और विज्ञान का अद्भुत संगम
- रावण का जन्म ऋषि पुलस्त्य के वंश में और दैत्य कन्या केकसी के गर्भ से हुआ। इसलिए उसमें ब्राह्मण का तेज और दैत्य की साहसिकता दोनों सम्मिलित थीं। वह केवल युद्धक नहीं — एक वैज्ञानिक, संगीतज्ञ, आयुर्वेदाचार्य और ज्योतिषज्ञ भी था।उसकी रचित रावण संहिता, शिव तांडव स्तोत्र, और आरोग्य विज्ञान आज भी ज्ञान के प्रकाश स्तंभ हैं।
- मन में एक शंका सभी को रहती है कि ज्ञानी, तपस्वी, विद्वान लोग चरित्रवान होते हैं! वे किसी भी कीमत पर डिगते नहीं है, तो रावण भी परम शिवभक्त था! फिर चरित्र पर लांछन क्यों लगाते हैं सब! क्या कथा कहने वाले विद्वान हैं या पाखण्डी? पूछता है भारत
विद्यावान् तपसा युक्तो, रावणो नृपसत्तमः।
दैत्येभ्योऽपि परं तेजो, ब्रह्मज्ञानपरायणः॥
- रावण विद्या, तप और ब्रह्मज्ञान से संपन्न था; वह दैत्यों में भी सबसे तेजस्वी था।
माँ केकसी का वरदान और रावण का उद्देश्य
- जब रावण ब्रह्मधाम जाने को उद्यत हुआ, तब उसकी माता केकसी ने उसे नौ मणियों वाला गलहार पहनाया! यही उसका दशानन रूप बनने का प्रतीक था। यह नौ मणियाँ उसकी दस दिशाओं में फैलने वाली बुद्धि का संकेत थीं।
- माँ केकसी ने कहा! पुत्र दशानन! ये नौ मणियाँ तुम्हारे नौ मुखों का तेज हैं। दसवाँ मुख वह है जहाँ ज्ञान और विनम्रता एक साथ निवास करते हैं।
- रावण का उद्देश्य केवल विजय नहीं था! वह चाहता था कि देव और दैत्य दोनों एक मंच पर आ सकें, जहाँ ज्ञान की कोई जाति न हो और शक्ति का उपयोग केवल रक्षण में हो।
वरदान की विवेचना
- जब ब्रह्मा ने तीनों भाइयों से वरदान माँगा, तो विभीषण ने कहा — मुझे नीति चाहिए। क्योंकि डरपोक आदमी लड़ नहीं पता! वो बदलाव करने या करवाने और क्रांति से भयभीत रहते हैं! जैसा चल रहा, चलने दो यार
- रावण मुस्कुराया! शिवजी से निवेदन किया मुझे शक्ति, ज्ञान, विज्ञान के रहस्य चाहिए, क्योंकि नीति बिना शक्ति अधूरी है। विभीषण ने निवृत्ति यानी आलस्य और त्याग को अपनाया, रावण ने प्रवृत्ति (कर्म) को। सभी कथावाचकों का यही हाल है!
- एक शांतिपथ, दूसरा संरक्षणपथ। जरा सोचो क्या दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं!
रावण को गाली देना — अपने सौभाग्य और धन का नाश
- क्योंकि रावण स्वयं शिव का प्रथम भक्त था, जो रावण का अपमान करता है! वह अनजाने में ही रुद्रतत्व का अपमान करता है। शैव अगम ग्रंथ के अनुसार
रावणं निन्दतो मूढो, रुद्रं निन्दति निश्चितम्।
रुद्रनिन्दकजन्मेषु, न वित्तं न च सौख्यम्॥
- जो मूर्ख रावण की निंदा करता है, वह शिव की निंदा करता है; ऐसे व्यक्ति के जीवन में न धन टिकता है, न सुख।
रावण का संदेश — कर्म ही असली धर्म है
- रावण ने अपने जीवन से सिखाया कि —ज्ञान और कर्म का संगम ही मोक्ष का मार्ग है। वह बुराई नहीं था, बल्कि अत्यधिक ज्ञान का प्रतीक था, जो अपने ही तेज में जल गया!
ज्ञानाग्निना दह्यते कर्म, न कर्मणां फलप्रदा।
रावणोऽपि ततो मुक्तो, यः कर्मेण न बध्यते॥
- ज्ञान की अग्नि में कर्म जल जाते हैं! रावण भी उस अग्नि से मुक्त हुआ जिसने कर्म से ऊपर उठना सीख लिया।
रावण विनाश नहीं, विवेक का प्रतीक है
- शक्ति का अहंकार विनाश करता है, पर ज्ञान का अहंकार जग को दिशा देता है। रावण कभी पराजित नहीं हुआ, उसने धर्म और विज्ञान का संगम दिखाया।
- रावण को गाली देने वाले धन से वंचित रहते हैं और जो रावण के ज्ञान को समझते हैं! वे जीवन में हर दिशा में समृद्ध होते हैं।
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